एशिया-पेसिफिक के 15 देशों ने 37वें ASEAN (एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस) समिट में 15 नवंबर को दुनिया की सबसे बड़ी ट्रेड डील पर साइन किए हैं। इस डील में शामिल देशों का ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (GDP) 26 लाख करोड़ डॉलर यानी दुनियाभर की कुल GDP के 30% से ज्यादा है। भारत ने इस डील से बाहर रहने का फैसला किया है।
वियतनाम ने 10 दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की इस एसोसिएशन की सालाना समिट वर्चुअली की थी। इसी समिट में डील पर साइन किए गए। भारत के इस डील से बाहर रहने के फैसले के बाद बचे हुए 15 देशों ने रविवार को इसे अंतिम रूप दिया। डील में शामिल ज्यादातर देश चीन पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं। इस डील को इस क्षेत्र में प्रभाव को बढ़ाने की चीन की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।
RCEP क्या है?
- रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) एक ऐसी ट्रेड डील है, जिसमें शामिल देश एक-दूसरे को मार्केट उपलब्ध कराएंगे। अपने-अपने देशों में इम्पोर्ट ड्यूटी को घटाकर 2014 के स्तर पर लाएंगे। सर्विस सेक्टर को खोलने के साथ ही सप्लाई और इन्वेस्टमेंट की प्रक्रिया और नियम सरल बनाएंगे।
- इस डील पर बातचीत नवंबर 2012 में शुरू हुई थी। इस ट्रेड ग्रुप में 2.1 अरब लोग यानी दुनिया की करीब 30% आबादी शामिल है। डील में इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी को लेकर भी कुछ नियम हैं, लेकिन एनवायरमेंट प्रोटेक्शन और लेबर राइट्स का कोई जिक्र नहीं है।
RCEP में कौन-कौन से देश शामिल हैं?
- इस डील में 10 आसियान सदस्य देश- ब्रुनेई दारुस्सलाम, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलिपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। साथ ही आसियान देशों के पांच फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA) पार्टनर -ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान, कोरिया और न्यूजीलैंड भी शामिल हैं। भारत का आसियान देशों के साथ FTA है और इस डील पर हुई शुरुआती बातचीत में वह शामिल रहा है। हालांकि, नवंबर 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस डील में शामिल होने से इनकार किया।
RCEP के इतने फायदे हैं, तो भारत बाहर क्यों रह गया?
- भारत ने RCEP से बाहर रहने का फैसला किया है तो इसकी वजह है- आत्मनिर्भर भारत अभियान। अगर भारत इस डील में शामिल रहता, तो उसके लिए अपने मार्केट में चीन के सस्ते सामान को आने से रोकना मुश्किल होता। इससे घरेलू उद्योगों को नुकसान होता। चीन से भारत का व्यापार घाटा 50 अरब डॉलर का है, जो और बढ़ जाता।
- भारतीय दवा कंपनियां RCEP में शामिल होने के पक्ष में थीं, क्योंकि इससे उनके लिए चीन को जेनेरिक दवाइयां सप्लाई करना आसान हो जाता। हालांकि, डेयरी, एग्रीकल्चर, स्टील, प्लास्टिक, तांबा, एल्युमिनियम, मशीनों के कलपुर्जे, कागज, ऑटोमोबाइल्स, केमिकल्स और दूसरे सेक्टरों में नुकसान उठाना पड़ता।
- इस डील की वजह से इम्पोर्टेड सामान पर इम्पोर्ट ड्यूटी 80% से 90% तक घटानी पड़ती। इसके अलावा सर्विस और इन्वेस्टमेंट नियमों को भी आसान बनाना होता। कुछ भारतीय उद्योगों को डर था कि अगर कस्टम ड्यूटी घटाई जाती, तो देश में इम्पोर्टेड सामान की बाढ़ आ जाती, खासकर चीन से।
- भारत ने इस डील पर हुई बातचीत के दौरान मोस्ट फेवर्ड नेशन (MFN) ऑब्लिगेशन के प्रावधान उपलब्ध न होने का मुद्दा उठाया था। इस डील के तहत RCEP देशों को भी भारत को वह दर्जा देना होता, जो उसने MFN देशों को दे रखा है। टैरिफ घटाने के लिए 2014 को बेस ईयर मानने पर भी भारत का विरोध था।
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक, भारत ने इस ट्रेड डील से बाहर रहने का फैसला सभी भारतीयों के जीवन और आजीविका पर पड़ने वाले असर को ध्यान में रखते हुए लिया है। खासकर समाज के वंचित तबके को ध्यान में रखते हुए। अधिकारियों के मुताबिक, भविष्य में डील में भारत के शामिल होने के रास्ते अब भी खुले हैं।
RCEP में शामिल न होकर भारत ने क्या गंवाया?
- दवा कंपनियों के साथ-साथ कुछ सेक्टरों में भारत को RCEP डील में शामिल देशों में कारोबार करना आसान हो जाता। अब यह इतना आसान नहीं रहने वाला। अगर भारत इस डील में शामिल होता तो वह ब्लॉक में तीसरी बड़ी इकोनॉमी होता।
- डील से बाहर रहने का मतलब है कि भारत को डील में शामिल देशों से नए इन्वेस्टमेंट में दिक्कत आ सकती है। इसी तरह भारतीयों को इन देशों से इम्पोर्टेड सामान पर ज्यादा कीमत चुकानी होगी। खासकर ऐसे माहौल में जब ग्लोबल ट्रेड, इन्वेस्टमेंट और सप्लाई चेन विकसित करने की कोशिशों को कोरोना ने नुकसान पहुंचाया है।
अब भारत के लिए किस तरह के अवसर बने हैं?
- डील से बाहर रहने की वजह से भारत अब अपनी स्थानीय इंडस्ट्री को बढ़ावा दे सकेगा और आत्मनिर्भर भारत अभियान को साकार कर सकेगा। जो सामान इम्पोर्ट होते हैं, उनका प्रोडक्शन देश में बढ़ाने में मदद मिलेगी, जिससे इन देशों के साथ व्यापार घाटे को कम किया जा सकेगा।
चीन के लिए RCEP डील का क्या महत्व है?
- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ट्रांस-पेसिफिक पार्टनरशिप (TPP) के तौर पर मल्टीनेशनल ट्रेड डील की घोषणा की थी, जिसमें चीन शामिल नहीं था। इस डील में अमेरिका और पेसिफिक रिम के 11 देश थे। इसके बाद ही RCEP को लेकर 2012 में बातचीत शुरू हुई।
- अमेरिका में इस डील को लेकर सब लोग खुश नहीं थे। जब डोनाल्ड ट्रम्प प्रेसिडेंट बने तो उसने TPP को ठंडे बस्ते में डाल दिया। उन्होंने एशिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं से कोऑपरेशन बढ़ाया और चीन पर हायर टैरिफ लगाए। ऐसे में चीन के पास सामान बेचने के लिए जगह कम हो रही थी और उसने RCEP के लिए प्रयास तेज किए।
- इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि चीन के पास व्यापार घाटे में 1 लाख करोड़ डॉलर का सरप्लस है। वह अन्य देशों से सामान कम खरीदता है और उन्हें बेचता ज्यादा है। इस सरप्लस में आधा हिस्सा तो अमेरिका से होने वाले ट्रेड की वजह से था। अमेरिका चीन से जितना माल खरीदता है, उतना किसी दूसरे एशियाई देश से नहीं खरीदता।
- ट्रम्प ने 2019 की पहली छमाही में चीन से ट्रेड वॉर शुरू की। चीन से अमेरिका को एक्सपोर्ट ओवरऑल 8.5% गिर गया। वहीं, दुनिया के अन्य देशों में सिर्फ 2.1% ही बढ़ा है। इसका नतीजा यह हुआ कि उसके यहां प्रोडक्शन सरप्लस की स्थिति बन गई। उसे अपना माल बेचने के लिए नया मार्केट ढूंढना जरूरी हो गया था।
- चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के झिंजियांग क्षेत्र में अत्याचार बढ़ गए हैं, जिस पर यूरोपीय संघ (EU) की नजर है। ट्रम्प और EU ने पहले ही हिकविजन और हुवाई जैसी चीनी मिलिट्री-समर्थित टेक कंपनियों के साथ कारोबार करना बंद कर दिया है। जल्द ही EU भी अमेरिका की तर्ज पर चीन से ट्रेड रिश्तों की समीक्षा कर सकता है।
- अमेरिकी प्रेसिडेंट-इलेक्ट जो बाइडेन ने भी चीन को लेकर पॉलिसी पर ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि हालात पहले जैसे हो जाएंगे। इससे चीन की बेचैनी बढ़ गई है और उसने RCEP को गति दी और अपने लिए नया मार्केट खड़ा किया है।
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