बीमारियां किसी को भी हो सकती हैं, शरीर को सुरक्षित रखने के लिए समय जरूर निकालना चाहिए https://ift.tt/3kvD3BT

कहानी - जून 1902 में स्वामी विवेकानंद ने अपने एक शिष्य को पत्र लिखा था। उसमें अपनी सेहत को लेकर बात की थी। स्वामीजी ने लिखा था कि मेरा किस्सा पूरा भया, नटे पौधा ढहा यानी अब इस जीवन को समेटने का समय आ गया है।

अंतिम समय में स्वामीजी ने अपने शिष्यों से कहा था कि एक के बाद एक कई बीमारियां मेरे शरीर में उतर आई हैं। मेरी सेहत तेजी से टूट रही है। बीमारियों की वजह से कभी-कभी गुस्सा भी आ जाता है, लेकिन तुरंत मैं अपने आप को शांत भी कर लेता हूं।

स्वामी विवेकानंद ने जिस शरीर से पूरी दुनिया नापी थी, पूरी दुनिया को मानवता की सीख दी, वही शरीर अंतिम समय में इतना लाचार हो गया था। उन्हें सांस लेने में असहनीय तकलीफ होने लगी थी। वे कई तकियों को इकट्ठा करके अपनी छाती के आगे लगा लेते थे और आगे की तरफ झुककर बड़ी तकलीफ से सांस ले पा रहे थे।

स्वामीजी अंतिम दिनों में कहा करते थे कि चलो मृत्यु आ भी गई तो क्या फर्क पड़ता है? मैं जो देकर जा रहा हूं, वह डेढ़ हजार वर्षों की खुराक है। गुरु महाराज का मैं ऋणी था। मैंने अपना काम कर दिया है। अब आगे की व्यवस्था तुम लोग संभालो।

सीख - जाते-जाते स्वामी विवेकानंद हमें समझा गए कि इस शरीर का भी ध्यान रखना है। बीमारियां किसी को भी हो सकती हैं, शरीर को सुरक्षित रखने के लिए हर रोज व्यायाम जरूर करें, क्योंकि ये शरीर एक दिन अपनी कीमत जरूर वसूलता है।



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